उत्तराखंड के काफल फल: स्वाद, पोषण और पौराणिक कथा
संवाददाता सीमा खेतवाल
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में उगने वाला काफल फल न केवल खट्टे-मीठे स्वाद का आनंद देता है, बल्कि यह पोषक तत्वों का भंडार भी है। यह फल उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश और नेपाल के पर्वतीय क्षेत्रों में भी पाया जाता है। काफल का मौसम चैत्र से लेकर जेठ मास तक होता है और गर्मियों के दौरान यह फल खासतौर पर इन पहाड़ी क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में मिलता है।
गर्मियों के मौसम में, काफल फल से स्थानीय लोग दो से तीन महीने तक स्वरोजगार प्राप्त करते हैं। इसके अलावा, बाहरी पर्यटक भी इस फल का स्वाद लेने के लिए पहाड़ी क्षेत्रों का रुख करते हैं। काफल को “जंगली फलों का राजा” माना जाता है, और इसकी विशेषता केवल स्वाद में ही नहीं, बल्कि इसके स्वास्थ्य लाभों में भी है।
काफल फल के पोषक तत्व और लाभ
काफल फल में कई महत्वपूर्ण पोषक तत्व होते हैं, जैसे विटामिन C, एंटीऑक्सीडेंट, एंटीमाइक्रोबियल और एंटी-इंफ्लेमेटरी तत्व। यह शरीर को ठंडक पहुंचाता है और विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को ठीक करने में मदद करता है।
- अल्सर, दस्त, और एनीमिया: काफल फल का सेवन शरीर को फायदा पहुंचाता है और इन समस्याओं को कम करता है।
- गले में खराश और बुखार: काफल का सेवन गले की समस्याओं को दूर करने और बुखार को नियंत्रित करने में सहायक होता है।
- अस्थमा, डायरिया और टाइफायड: काफल के पेड़ की छाल का रस अस्थमा, डायरिया और टाइफायड जैसी बीमारियों में उपयोगी माना जाता है।
- सिरदर्द और आंखों की बीमारियां: पेड़ की छाल का पाउडर सिरदर्द और आंखों की समस्याओं में राहत देने में मदद करता है।
लोकगीत और काफल का सांस्कृतिक महत्व
काफल फल का लोकसंस्कृति में भी खास स्थान है। कई लोकगीतों में काफल का उल्लेख किया गया है, जैसे:
- “बेड़ो पाको बारों मासा औ नैरिणि काफल पाकों चैता मेरी छैला”
- “कफुवा बाटे में काफल की डाली कफुवा तू बासलें कब”
- “पहाडों का डानों में इजू काफल पकालि, तेरि बुवारी अनिता इजू मैतै भाजैलि”
काफल और कफुवा पक्षी की पौराणिक कथा
काफल फल से जुड़ी एक प्राचीन पौराणिक कथा भी है, जो इसे और भी खास बनाती है। कथा के अनुसार, एक गरीब महिला और उसकी बेटी गर्मियों में काफल तोड़कर बाजार में बेचती थीं। एक दिन, जब मां खेतों में काम करने गई, तो उसने अपनी बेटी से कहा कि वह काफल को देखे और खाए नहीं। लेकिन जब शाम को मां घर आई तो देखा कि काफल कम हो गए थे। उसने बेटी से पूछा, तो लड़की ने कहा कि उसने काफल नहीं खाए। फिर भी मां ने विश्वास नहीं किया और उसे बुरी तरह से पीटा, जिससे बेटी की मृत्यु हो गई। दुखी मां ने भी अपने प्राण त्याग दिए।
समय के साथ, दोनों मां-बेटी पक्षियों के रूप में जन्मे, और अब भी चैत्र से जेठ तक इन पक्षियों की आवाज़ें काफल के जंगलों में सुनाई देती हैं। वे कहते हैं, “काफल पाकों मैन न चाखो”, अर्थात काफल पक चुका है, पर मैं उसे नहीं खाऊँगा।
इस तरह, काफल फल न केवल स्वादिष्ट और पोषक तत्वों से भरपूर है, बल्कि यह पहाड़ी संस्कृति और लोककला का भी अभिन्न हिस्सा बन चुका है।
